CJI पर जूता फेंकने वाले वकील- ‘कोई पछतावा नहीं, मुझे ऊपर वाले ने कराया’

शकील सैफी
शकील सैफी

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में हाल ही में जो हुआ, वो कानून की किताबों में तो दर्ज नहीं था – लेकिन मीडिया की हेडलाइंस में ज़रूर दर्ज हो गया।

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी. आर. गवई पर वकील राकेश किशोर ने कोर्टरूम में जूता फेंका।
जी हां, वही अदालत जहाँ “Order in the Court” कहा जाता है, वहाँ आज “Disorder in Emotion” देखने को मिला।

“कोई पछतावा नहीं, मुझे ऊपर वाले ने कराया” – वकील साहब का दर्शनशास्त्र

घटना के बाद वकील राकेश किशोर ने कहा:

“मैं नशे में नहीं था, मैं आहत था। ये उनकी टिप्पणी पर मेरी प्रतिक्रिया थी।”

और फिर कहा…

“मुझे किसी से माफी नहीं मांगनी। मैं डरता नहीं, और मुझे कोई पछतावा नहीं। ये सब ऊपर वाले ने मुझसे कराया।”

यानि अब कर्म के साथ कनेक्शन सीधे डिवाइन वाई-फाई से।

“सनातन का मजाक नहीं सहेंगे” – भावनाएं बनाम न्यायपालिका की भाषा

राकेश किशोर का आरोप है कि जब सनातन धर्म से जुड़े मामलों पर याचिकाएं आती हैं, तो सुप्रीम कोर्ट “टोन और टेंपर” में मजाकिया रवैया अपनाता है।

उदाहरण के तौर पर, उन्होंने एक याचिका का ज़िक्र किया जिसमें CJI ने कथित तौर पर कहा:

“जाओ मूर्ति से प्रार्थना करो और उससे कहो कि वो तुम्हारा सिर वापस लगा दे।”

इस पर वकील का तर्क है – “राहत मत दो, लेकिन हमारे धर्म का मज़ाक भी मत उड़ाओ।”

“CJI को भी ‘माई लॉर्ड’ शब्द की गरिमा समझनी चाहिए”

राकेश किशोर ने आगे कहा:

“जो इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर बैठे हैं, उन्हें अपनी भाषा और सोच दोनों पर ध्यान देना चाहिए। जब आप विदेश जाते हैं तो लोकतंत्र की बातें करते हैं, लेकिन यहाँ पर जब योगी सरकार बुलडोजर चलाती है तो आप सवाल करते हैं?”

इसमें थोड़ा ताना, थोड़ा तीखा, और थोड़ा पॉलिटिकल ड्रामा भी भरपूर था।

“हो सकता है मैं भी दलित हूं?” – पहचान की राजनीति की एंट्री

चूंकि CJI गवई दलित समुदाय से आते हैं, तो इस घटना को कुछ लोग जातीय अपमान भी कह रहे हैं। इस पर वकील राकेश किशोर ने पलटवार करते हुए कहा:

“मेरा नाम राकेश किशोर है, क्या आप मेरी जाति बता सकते हैं? हो सकता है मैं भी दलित हूं।” “CJI पहले सनातनी थे, अब बौद्ध हैं – तो दलित कैसे हुए?”

अब यह कानूनी विवाद से ज्यादा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की बहस बन चुकी है।

जूता फेंकने से न्याय नहीं मिलेगा – बार काउंसिल और SCBA की प्रतिक्रिया

बार काउंसिल ने वकील को तत्काल निलंबित कर दिया है और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) ने कहा:

“ऐसे व्यवहार से न्यायपालिका की गरिमा को गहरा आघात पहुंचता है। विरोध की एक मर्यादा होती है।”

कोर्टरूम में ग़लत जूता फेंकोगे, तो कानून का चप्पल भी लौटेगा

इस घटना ने सिर्फ कोर्ट नहीं, बल्कि सोशल मीडिया और राजनीति – सब जगह हड़कंप मचा दिया है।

अब सवाल ये नहीं है कि जूता क्यों फेंका गया, सवाल ये है कि क्या अब विरोध का मतलब सीधे Objects उछालना हो गया है?
क्या हमारे लोकतंत्र में Disagreement = Disrespect हो गया है?

भावनाएं सही हो सकती हैं, तरीका बिल्कुल गलत था

संविधान कहता है: “Express your dissent, but within the framework of law.”
लेकिन यहां तो जूता पहले चला, विचार पीछे आए।

वकील राकेश किशोर का गुस्सा, आस्था और पीड़ा अपनी जगह हो सकती है – लेकिन क्या इस तरह के व्यवहार से न्यायपालिका को आइना दिखाया जा सकता है?

या फिर अब हर असहमति का जवाब फेंकू शैली में ही आएगा?

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